Monday, November 23, 2020

#दिल की डायरी- पाती

पाती

वक्त तो अपनी रफ्तार से भाग रहा है, जैसे हमेशा भागता है...कल जब तुम्हारी उंगलियों को अपनी उंगलियों में पिरो रहा था...तब भी जानता था...वक्त भाग रहा है...वही मेट्रो, वही ऑटो और वही बिसलगढ़ी से पंचशील तक का सफर...जो पिछले एक महीने से कट रहा था...अब बदल गया है... तब वापस लौटते वक्त याद होती थी अब बेचैनी...अजीब सा डर...फिर भी लौटता हूं इस उम्मीद में कि इन उंगलियों को जिन्हें मैंने अपनी उंगलियों में पिरो रखा है...उन्हें जन्म-जन्मांतर के बंधन में बदल दूंगा...ये हौसला पहली बार आया है कि तुम्हें खुद से जुदा नहीं देख सकता...जानता हूं कि सोचती हो मेरे बारे में...ये भी कह देना चाहता हूं...जान लोगी क्या मेरी...एकाध फोन करके सांसें भर दिया करो... तुम्हारी आंखों को देखता हूं...छलक रहा होता है...दुनिया जिसे प्यार कहती है...हम क्या कहें? चलो नहीं देता कोई नाम...पर इतना तो कह ही सकता हूं कि ये जो एहसास है इसने मेरे मन के हर झरोखे, हर खिड़की, हर दरवाजे को खोल दिया है...रोशनी अब छनकर नहीं खुलकर अंदर आती है...अंदर का सीलन ताजा हवा के झोंके से मिट गया है...अभी फोन की घंटी घनघनाई...सोचा तुम हो...दिल का हाल अभी कह डालूंगा...पर तुम न थे...तुम्हारी आंखों को देखता हूं तो खो जाता हूं...डर भी जाता हूं...रहस्यमयी आंखें यूं ही उंगलियों को पिरोए दिल्ली की गलियां, नोएडा की सड़कें, गाजियाबाद के फुटपाथ ही नहीं...पूरी दुनिया के रास्ते तय करना चाहता हूं...जब तुम्हारे गालों को चूमता हूं तो समाज को अश्लीलता दिखती होगी...पर मेरे लिए वो पाकीजा लम्हा है...तुम्हारा अचानक चूमकर मुस्कुरा देना सिरहन पैदा कर देता है...तुम ऐसा ही तो करती आई...कब, क्या उम्मीद नहीं...पर अब उम्मीदें हैं...इतनी बड़ी की बयां नहीं की जा सकतीं...तुम्हारा बचपना, तुम्हारा बड़प्पन सब प्यारा है मुझे... बिना चश्मे के जब तुम देखती हो और मैं उंगलियों को बदल कर दिखाता हूं...तुमको पता भी नहीं चलता कि कितनी सफाई से मैं अपनी खुदगर्जी पूरा करता हूं...हां, तुम्हारे चेहरे पर जो खिलखिलाती हंसी आती है वही तो है उस खुदगर्जी का राज...देखो तुम बात कर लिया करो...सांस भर दिया करो...फोन को तो ऊर्जा मिल जाती है बिजली की या फिर जैसे भी...और मुझे? तुम जानती हो कि बिना तुम्हारे मेरी जिंदगी की बैटरी डाउन ही रहती है...यूं ही सही...पर एक बार मेरे लिए...फिर कहता हूं...जान लोगी क्या मेरी...एकाध फोन करके सांसें भर दिया करो...

Sunday, August 2, 2020

...और छोटी वाली बुआ भगवान को प्यारी हो गईं

दोपहर का वक्त था। मेरी तीसरी नंबर वाली बहन (मेरी अपनी 6 बहनें हैं) के घर गृह प्रवेश था। उसकी शादी प्रयागराज के शंकरगढ़ में हुई है। मेरा घर प्रयागराज में ही कोरांव में है। शंकरगढ़ और कोरांव की दूरी करीब 55 किलोमीटर है। खैर, मैंने पहले ही बहन को कह दिया था कि कोरोना का टाइम चल रहा है किसी को न बुलाए और अगर वो बुलाती भी है तो कोई जाएगा नहीं, पर बहन तो बहन ठहरी। उसने मुझे फोन न करके भाई जी (मेरे बड़े भाई) को फोन किया और आने के लिए कहा। 
भाई जी दोपहर को घर आए और शंकरगढ़ चलने पर चर्चा की। मैं कोरोना से इतना डरा हुआ हूं कि घर से बाहर नहीं निकलता ऐसे में शंकरगढ़ जाना मुझे पहाड़ लग रहा था। वैसे भी मुझे दिल्ली से आए 20 दिन हो चुके हैं, पर कहीं बाहर नहीं निकला था। हां, पैर में चोट लगने की वजह से एक दिन अस्पताल जरूर गया था। बहन के मोह में एकबारगी हम तैयार भी होने की सोचने लगे। भाभी भी चलने को तैयार हो गए, पर मेरे दोनों भतीजे शिवि और क्षितिज ने साफ मना कर दिया। 
अभी हम मंथन ही कर रहे थे कि भाईजी ने अम्मा से कहा कि छोटी बुआ की तबीयत सीरियस है। ताउजी की बेटी गुड़िया ने फोन करके बताया कि बुआ की तबीयत ज्यादा ही सीरीयस है। मेरी छोटी वाली बुआ (सावित्री बुआ) सिरसा, जो कोरांव से 32 किलोमीटर दूर है, वहां रहती है। उनकी दो बेटियां हैं। गुड्डी जिया सुनीता। दोनों मुंबई रहती हैं। भाईजी ने बताया कि कुछ दिन पहले गुड्डी जिया आई थीं पर वो अपने सुसराल कोल्हेपुर (जिगना,मिर्जापुर) चली गई ैहैं। कोल्हेपुर मेरा भी ननिहाल है। गुड़िया ने कहा कि बुआ को कोरांव भर्ती नहीं कर सकते। इतना सुनते ही मैं हिचक गया। कोरांव भर्ती कराने का मतलब जिम्मेदारी उठाना और देखभाल करना। ऐसा नहीं है कि बुआ से लगवा नहीं है, पर कोरोना के भय से त्रस्त चुप रहा। आखिरकार मन नहीं माना और मैंने जीवन रेखा मेडिकेयर के मैनेजिंग डायरेक्टर डॉ. अनिल पांडेय (डॉक्टर भइया कहता हूं उन्हें) फोन किया। मैंने बताया सांस फूल रही है ऑक्सीजन की जरूरत है अस्पताल बुला सकते हैं। कोरांव में कोरोना मरीज बढ़ रहे थे तो प्रशासन सख्त था लिहाजा उन्होंने कहा ऑक्सीजन तो है, पर बिना कोरोना टेस्ट वो भर्ती नहीं कर सकते। मैंने पूरा हाल भाईजी को बताया और अपने कर्तव्यों की औपचारिकता पूरी कर दी।
फिर से भाईजी के फोन की घंटी बजी- क्या बुआ खत्म हो गई। फोन कटा और सब चुप। दिमाग हिल गया कि क्या बुआ की हालत इतनी खराब थी, यानी वो मरणासन्न थीं। अम्मा को बताया। वो रोने लगी। अम्मा से छोटी थी सावित्री बुआ। आती थी तो घर में खुशी से रहती थी। दुखी सब थे, मैं भी पर अम्मा को सबसे ज्यादा पीड़ा थी। उनकी ननद, उनकी सहेली इस दुनिया को छोड़कर चली गई। हमें डर था कि अम्मा खूब रोने न लगे। वो रोई भी और बुआ के अंतिम दर्शन कराने के लिए भी कहती रहीं। आम दिन होता तो निश्चित रूप से अम्मा को लेकर जाते, पर कोरोना की वजह से नहीं ले गए। 
मैं कार लेकर दिल्ली से आया था, उसी से गए। चाची-चाचा और उनका बेटा पवन साथ भाई जी। सिरसा पहुंचने में आधे घंटे लगे। बुआ के दरवाजे पर कोई भीड़ नहीं थी। फूफा जी गमछा लपेटे उकड़ूूू बैठे थे। बगल की दो-एक महिलाएं थीं, कौन ये नहीं पता। दूर से ही बुआ को देखा। ऐसा लगा सो रही हो, पर पास नहीं गया, क्योंकि पास में जाने का मतलब किसी के संपर्क में आना। मैं कार के पास ही रहा। उस वक्त करीब 4 या 5 बज रहे थे और अंतिम संस्कार के लिए तैयारियां भी नहीं हो रही थी। कौन करे, फूफा जो जिंदगी भर फटेहाल रहे उस दिन भी लग रहे थे। बेटा था नहीं, अब तक बड़ी बेटी यानी गुड्डी जिया भी नहीं आई थी। पता चला कोई अर्थी के लिए बांस काटने गया है। मेरे पैर में चोट भी थी और कोरोना से भयग्रस्त भी था, इसलिए मैं मूकदर्शक बना रहा। 
फिर आसपास के लोगों के साथ-साथ अन्य रिश्तेदार भी इकट्ठा होने लगे। फूफा के भाई लोगों के परिवार से चार लोगों ने चंद कदमों तक कंधा दिया, फिर एक टाटा मैजिक पर रख दिया, क्योंकि घाट वहां से 3 किलोमीटर दूर था। घाट बना नहीं है, गंगाजी का किनारा है, जहां आसपास के लोग अंतिम संस्कार के लिए आते हैं। मैं भी कार लेकर चाचा, भाईजी को लेते हुए घाट की ओर चला गया। सभी ने पैर छूकर उन्हें आखिरी बार प्रणाम  किया, पर मैंने नहीं आम दिन होते तो करता, पर इस बार नहीं किया। ये सोचकर भी जिसकी कद्र करो जीते जी, मरने के बाद दिखावे से क्या फायदा। 
घाट को छतवा घाट बोलते हैं जहां आसपास के लोग अंतिम संस्कार के लिए आते हैं। मुझे कभी वहां जाना पसंद नहीं रहा। खैर किसी को नहीं पसंद होगा वहां जाना, पर जीवन का वही एक अंतिम सत्य है। वहां पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो गया। टाउन एरिया की गाड़ी ने लकड़ियां पहुंचा दी थीं, पर बरसात में रास्ता खराब होने की वजह से घाट से करीब 300 मीटर पहले ही गाड़ियां खड़ी हो गईं तो लकड़ियां लोगों ने हाथों से वहां पहुंचाई। मैंने भी चार लकड़ियां उठाकर घाट तक पहुंचाया और अपने कर्मों की खानापूर्ति की। सच तो है दिमाग ने कहा बुआ के लिए कुछ तो कर दे यार, इसलिए पैर में चोट के बावजूद चार लकड़ियां घाट तक ले गया। 
चिता सजी और बुआ को पंचतत्व में विलीन करने की तैयारी पूरी हो गई। उस दौरान मैंने घाट पर एक महिला को देखा, जो कुछ रीति-रिवाजों को पूरा करवा रही थी। उसी महिला को आग जलाकर देनी थी, क्यों क्या कैसे है ये रिवाज मुझे नहीं पता। कुछ दक्षिा भी लेती हैं, खैर वही उनके पेट भरने का जरिया भी है। 
मैंने देखा बुआ के सभी कपड़े भी वहां लाए गए थे। उस महिला को बुआ के कपड़ों की गठरी दी गई, उसने नए कपड़े चुने बाकी वहीं छोड़ दिए। बुआ के जाने के बाद उनकी हर चीज किसी के लिए अछूत और डरावनी हो गई तो किसी के लिए वो तन ढकने का जरिया बन गई और किसी मृत के कपड़े लेने से उस महिला को कोई हिचक नहीं। दुनियावी ये रीति समझ से परे होती है। जरूरतों से बड़ा शायद कुछ होता नहीं हैं।
घंटे भर बीत गए। घोर अंधियारा हो गया। चारों ओर गंगाजी और ढेर सारा पानी। कुछ लोग नाव में दिख रहे थे मुझे, पूफने पर पता चला कि वो मछुआरे हैं और रात भर यहीं रहेंगे, क्योंकि उन्होंने पास में ही जाल बिछा रखा है। जहां चिता जल रही थी उसके आसपास दो-एक मछुआरे थे। मुझे ताज्जूब हुआ कि ऐसी घनघोर रात और उस जगह पर रात बिताना वो भी अकेले, नाव में जहां न जाने कब से चिताएं जलाई जाती हैं। ऐसे हिम्मतवाले लोगों से मिलने का मन हुआ कि इतना कलेजा लाते कहां से हैं, फिर मेरे मन ने ही जवाब दिया। भूख, हां भूख और परिवार पालने की जिम्मेदारी कलेजा मजबूत कर ही देता है। मैंने समय पूछा रात के आठ बज रहे थे, पर उपर से गीली लकड़ियों की वजह से आग सुलगने में देरी हो रही थी। करीब 15 लोग थे वहां। मेरे चाचा उनके बेटे कुछ रिश्तेदार। चारों ओर सियारों के हुआं-हुआं करने की आवाजें आ रही थीं। रात घनघोर थी, पर गंगाजी का पानी चांदी की तरह चमक रहा था। शांत, जैसे कुछ हुआ ही न हो। थोड़ा और वक्त बीता हवा चली और चिता धू-धूकर जलने लगी। थोड़ी देर पहले अधेरे में छिपे घाट में उजाला हो गया, चिता की रोशनी से। मैं कई बार वहां गया हूं, पर हर बार मुझे अच्छा नहीं लगता। मुझे उस चिता में पापाजी दिखने लगे जिन्हें लेकर 22 मार्च 2018 को मैं उसी घाट पर गया था। मेरे मन में अजीब-अजीब से ख्याल चलने लगे। मैं काफी देर तक खड़ा रहा, पर देर होते देख एक उठी सी जगह पर चप्पल रखकर बैठ गया। सामने चिता जल रही थी, गंगाजी का किनारा। गर्मी थी, पर गंगाजी के किनारे थोड़ी ठंडक थी। चिता से लपटें उठ रही थीं। गौर किया तो देखा कि आग का रंग कितना प्यारा है, कितना आकर्षक, पर इस आकर्षण से डर भी लगता है, पर चिताएं भी आग की वजह से आकर्षक हो सकती हैं, मन क्यों ये महसूस कर रहा था, मेरा कोई जोर नहीं था। बुआ धीरे-धीरे अग्नि में समाहित हो रही थी, मैं देख रहा था। ठीक वैसे ही पापाजी भी अग्नि में समाहित हो गए थे औक एक दिन हम भी हो जाएंगे। गंगाजी के किनारे उस दृश्य को देखते हुए मन अजीब सा हो रहा था। समय बीता बुआ राख हो गईं हमने पांच लकड़ियां आखिरी में दीं और उसी समय उनके भतीजे आए जो बार-बार कह रहे थे कि अरे, चाचा ने बताया ही नहीं, नहीं तो डॉक्टरों की फौज खड़ी कर देते। बुरा लग रहा था कि क्या बकैती कर रहे हैं ये, फिर चुप भी हो गया कुछ यही खानापूर्ति तो मैंने भी की थी शायद। उनमें और मुझमें कोई अंतर नहीं था.....हम अब घर की ओर लौट रहे थे और छोटी वाली बुआ भगवान को प्यारी हो चुकी थीं।