Sunday, October 10, 2021

लघुकथा- बस जिंदगी ही तो बदली है..!

 



रात के करीब 12 या 1 बज रहे होंगे। लंबे इंतजार के बाद रुचि और रोहित को पुणे के लिए बस मिल पाई थी। दोनों गोवा से निकले थे पुणे के लिए। कोई सीधी बस नहीं मिली तो बीच-बीच में रुकते हुए जा रहे थे। रास्ते में कर्नाटक का बॉर्डर पड़ता था। जैसे ही बस कर्नाटक बॉर्डर में घुसी चेकिंग प्वाइंट पर बस को रोक लिया गया। पुलिस के कुछ जवान बस में चढ़े और चेकिंग शुरु कर दी। दरअसल गोवा से आने वाली बसों में बाहरी यात्रियों पर कर्नाटक पुलिस कुछ ज्यादा मेहरबान रहती है। पुलिस रोहित के पास आई और बैग चेक कराने के लिए कहा। गोवा से एक निश्चित मात्रा में ही शराब दूसरे राज्यों में ले जाया जा सकता है, जिसके लिए गोवा में बकायदा रसीद भी मिलती है। 

पुलिस ने रोहित का बैग चेक किया और निश्चित मात्रा से एक बोतल ज्यादा शराब मिलने की बात कहकर रोहित को बस से उतार लिया। रोहित जब तक बस में था, तब तक रुचि शांत रही। वो पुलिस की चेकिंग प्रक्रिया में कोई हस्तक्षेप नहीं कर रही थी। हां, जब रोहित को पुलिस नीचे अपने साथ चेक प्वाइंट तक ले जा रही थी तो उसके माथे पर चिंता की लकीरें जरूर पड़ीं। वो खिड़की से बाहर देख रही थी। पुलिस रोहित को अंदर लेकर गई और इसी बीच पुलिस ने बस को आगे बढ़ा दिया। इधर बस आगे बढ़ रही थी और उधर रुचि परेशान हुई जा रही थी। फोन का नेटवर्क भी नहीं था। बस में भीड़ थी दोनों के बैग थे,रुचि उतर कर रोहित के पास जा भी नहीं सकती थी। सब कुछ इतना आनन-फानन में हुआ कि रुचि को भी सोचने का मौका नहीं मिला। बस आगे एक ढाबे के पास जाकर रुकी। इस बीच रुचि बदहवास हो गई। रोहित को खोने के ख्याल भर से उसका दिल बैठा जा रहा था। वो पागलों की तरह दूसरों से फोन मांगकर रोहित का नंबर ट्राई कर रही थी। 

उधर पुलिस से बातचीत करने के बाद रोहित बाहर निकला तो बस गायब। काटो तो खून नहीं। बस को ढूंढने में रोहित को 10 मिनट का वक्त लगा और उस दस मिनट में न जाने कितने खौफनाक खयाल रोहित के दिमाग में चकरा रहे थे। किसी अहित की आशंका से ही रोहित का माथा ठनका हुआ था। रोहित रुचि को बच्ची की तरह प्यार करता था, सोचिए जब कोई छोटा बच्चा खो जाए तो उसके पैरेंट्स का क्या हाल होता होगा। कुछ ऐसा ही हाल रोहित का भी था। जान निकल रही थी दोनों की। जैसे ही रोहित बस के पास पहुंचा रुचि ने उसे देखा और दौड़ती हुई रोहित से लिपटकर रोने लगी। रुचि ने कोई परवाह नहीं कि वो आसपास कौन हैं, या लोग क्या सोचेंगे। रुचि हिचकियां बांधकर रोए जा रही थी और बार-बार यही कह रही थी कि तुम्हे कुछ हो जाता तो मैं कैसे जीती। 

रुचि काफी देर तक रोहित से लिपटकर सुबकती रही रही और रोहित उसे शांत कराता रहा। उस वक्त रोहित का भी वही हाल था। प्रेम में एक-दूसरे के लिए जो तड़प होनी चाहिए थी वो दोनों में साफ दिख रहा था। रुचि ने तो रोकर हाल बयां कर दिया, पर रोहित जता नहीं पाया कि उस 10 मिनट के अलगाव ने उसे जीते जी मार दिया था। रोहित के लिए रुचि क्या थी वो शब्दों से परे था। दोनों के रिश्ते में कितनी गर्मजोशी थी वो साफ नजर आ रहा था। गौरव और रुचि को इस तरह देखकर लोग कनखियों से मुस्कुरा रहे थे, शायद कुछ दुआएं दे रहे थे, कुछ हंस रहे थे और शायद कुछ इस रिश्ते को नजर लगा रहे थे।

नजर, हां शायद नजर ही तो लग गई। पुरानी तस्वीरों को देखते हुए रोहित यही तो महसूस कर रहा है। उस ट्रिप को बीते करीब पांच साल हो चुके हैं। उसकी तस्वीरें हैं, यादें हैं, पर अब वो शख्स नहीं है, दोनों साथ नहीं हैं। आज रोहित जब उस वाकये को याद कर रहा है तो समझ नहीं पा रहा कि आखिर वो क्या था। प्यार में तड़प या कुछ और? आज जरूर रुचि कह रही है कि वो उसका बचपना था, पर उसे नहीं पता कि वो बचपना नहीं प्यार था, जो उस वक्त दोनों के दिल में बेशुमार था। उस 10 मिनट के अलगाव ने रोहित को रुचि और भी करीब ला दिया था। रोहित ने उसी वक्त तय कर लिया था, इस जन्म तक, जब तक सांसें चल रही हैं वो रुचि का साथ नहीं छोड़ेगा, उस वक्त तो रुचि को भी ऐसा लगा हो शायद। बीतते वक्त के साथ रोहित के मन में रुचि के लिए प्रेम गहरा होता रहा। रुचि ने भी प्यार की इसी गहराई को जाहिर किया था, पर अचानक पूरा रंग उतार दिया। जो 10 मिनट का अलगाव नहीं सह सकते थे उन्हें अलग हुए 10 से ज्यादा महीने हो गए। जो एक-दूसरे से बात किए बिना नहीं रह सकते थे उनके बीच कोई राब्ता नहीं है। रुचि कहती थी कि कुछ नहीं बदलता, सब ठीक हो जाता है। रोहित सोचता है कि सच ही कहती थी रुचि कि उसके जाने से बदला ही क्या है, बस जिंदगी ही तो...


Sunday, June 27, 2021

उस रात जब स्कूटी का टायर पंक्चर हुआ था

तुम्हें हमेशा लगता है कि मैंने तुम्हारी बेस्ट फ्रेंड से तुम्हे दूर कर दिया, मुझे भी यही लगता है हमारे लिए। खैर वो मुझे इसलिए नहीं पसंद थी क्योंकि तुम उसे बहुत पसंद करती थी। तुम कह भी तो देती थी ना कि मैं उसके लिए तुम्हें छोड़ दूंगी तो क्यों पसंद करता मैं और सच मुझे उससे कोई दिक्कत नहीं थी, पर कभी अपना प्यार बंटता हुआ नहीं देख पाता था। मैं उसे पसंद नहीं करता था इसका मतलब ये भी नहीं था कि मैंने तुम्हें कभी रोका हो।

उस शाम को जब उसने तुम्हें अपने घर बुलाया था फैमिली झगड़े की वजह से मैं भी तो गया था ना तुम्हारे साथ। तुम्हें पता था कि मुझे बुखार है सिर में दर्द है, पर तुम्हारी खुशी से बढ़कर मेरे लिए कभी कुछ था भी नहीं। जो कर सकता था वो किया मैंने तुम्हारे चेहरे की चमक के लिए। 

जब तुम मुझे घर छोड़कर जा रही थी तो रात के साढ़े दस बज रहे थे। विवेकानंद नगर से हापुड़ चुंगी तक सुनसान होता है मेरा मन नहीं कर रहा था कि तुम्हें जाने दूं, पर तुमने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं रोज ही तो जाती हूं, मैंने भी सोचा हां रोज ही तो जाती हो, पर पता नहीं क्यों मन उस दिन मन खटका था। तुम चली गई। रोज की तरह मैं तब तक तुम्हें खड़ा होकर देखता रहा जब तक तुम्हारी स्कूटी आंखों से ओझल नहीं हो गई। जब तुम जा रही था तो एक कार थी तुम्हारे पीछे, तुम मुड़ी तो वो भी मुड़ी थी, सच कहूं मुझे उसी वक्त किसी अनहोनी का अंदेशा लग रहा था, पर मैं चुप रहा कि तुम कहोगी मैं पजेशिव ज्यादा हूं।
घर पर पहुंचकर बस कपड़े ही बदले थे और तुम्हारे फोन का इंतजार कर रहा था, पर अजीब सी बेचैनी थी तब से तुम्हारा मेरा फोन बजा। तुम थीं और बेतहाशा रोए जा रही थीं। उस वक्त बता नहीं सकता कि मेरी जान निकल गई थी। मुझे पक्का पता था कि कुछ गड़बड़ हो गई है। मैंने तुम्हें ढाढस दिया और निकल पड़ा था तुम्हारे पास। मेरे पास कोई गाड़ी नहीं थी और रात के ग्यारह बज गए थे वो एरिया और भी डरावना हो जाता है। पता है कोई पब्लिक व्हीकल नहीं मिला वहां दिन में नहीं मिलता तो वो तो रात थी। एक कार जा रही थी मैंने उनसे लिफ्ट मांगी उन्होंने कार रोकी, पर वो पिए हुए थे शायद या फिर बदमाश थे जो भी थे मुझे गंदी गंदी गालियां दिए जा रहे थे, हाथों में पिस्टल भी लहरा रहे थे या नहीं लहरा रहे थे अंधेरा था ठीक से कह नहीं सकता। खैर, उसी वक्त एक बाइक वाले ने मुझे लिफ्ट दे ही दी थी। बस ये लग रहा था कि किसी तरह तुम्हारे पास पहुच जाऊं। 

हापुड़ चुंगी के इस तरफ उसने मुझे छोड़ा था, मैं लगभग दौड़ता हुआ तुम्हारे पास आया और मेरे आते ही जो तुमने मुझे भींचकर गले लगाया था और खूब रोई थी बता नहीं सकता कि मैं कैसा महसूस कर रहा था। तुम्हारे पास पहुंचने का सुकून कुछ ऐसा था कि जैसे उस वक्त सारी कायनात मुझे मिल गई हो। मुझे हमेशा यही लगता था कि मेरे रहते तुम्हे रत्ती भर भी आंच नहीं आने दूंगा। मैं चुप कराता जा रहा था और तुम हिचकियां बांधकर रोए जा रही थी। जी कर रहा था कि कस कर तुम्हें अपनी बांहों में छिपा लूं। 

तुम्हारे बताने से पहले समझ गया था कि वो कार तुम्हारे पीछे लगी थी और स्कूटी भगाने के चक्कर में  पहिया गड्ढे में गया और ट्यूब फट गया। मुझे आज भी तुम्हारी वो रीती हुई हिचकियां याद हैं। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरा बच्चा परेशान हो। हां, बच्चा ही तो कहता था न तुम्हें। बच्चा मानता भी था। तुम्हें दुनिया की हर नजर से बचा कर रखना चाहता था फिर बुरी नजर की क्या मजाल। उस दिन खुद को बहुत कोसा था कि हमेशा तो मैं तुम्हें छोड़ने जाता ही था क्यों नहीं गया उस दिन। तुम्हारे एक-एक आंसू का जिम्मेदार मैंने खुद को माना था। याद है तुमने रोते हुए मुझसे कहा था कि अब मैं उससे नहीं मिलूंगी मैं जब-जब उससे मिलती हूं हमारे साथ कुछ न कुछ बुरा जरूर होता है। 

मुझे भी हमेशा यही डर लगता था। जब वो तुम्हारे नजदीक होती थी यकीन मानो मुझे डर लगता था। गोवा में तुमने हर रंग देखे थे, पर वक्त ने मुझे गलत साबित कर दिया। मैं तुम्हारी आंखों में आंसू कभी नहीं देख सकता था। मेरी बच्ची हमारी गुड़िया को भी मैं दुनिया की हर खुशी देता जो अगर कभी तुम्हारी कोख से जन्मती, पर तुममे मुझे वो बच्ची नजर आती थी, जिसपर अपना लाड़ दुलार हक चिंता सब जताता था। तुम्हें  सुकून से घर पहुंचाकर पूरी रात मैं ठीक से सो नहीं पाया था, तुम्हारी आंसू भरी आंखों ने मेरे आंखों को भी नम कर दिया था। 

जो उस दिन तुमने कहा था कि उससे मिलने पर कोई न कोई घटना होती ही है तो सोचो जरा मेरे न रहने पर उससे मिलने से और भी बड़ी घटना होनी ही थी। मेरे घर आते ही तुम्हारी और उसकी नजदीकी आ गई तो मुझे तो दूर हो ही जाना था। न न मैं उसे दोष नहीं दे रहा। सारा कसूर मेरा है, तुम्हें चाहने में कोई कसर मैंने ही छोड़ दी होगी, जो तुमने मुझे छोड़ दिया।

आज साथ नहीं हूं, पास नहीं हूं, पर मेरा दिल हमेशा ये चाहता है  कि कभी तुम्हारे आंसू न निकलें और निकलें भी तो मैं रहूं तुम्हारे पास, तुम्हारा सिर मेरे ही कंधे पर ही ढुलके। मैं ही तुम्हें चुप कराऊं, फिर मैं तुम्हारे चेहरे को अपने हाथों में भरकर तुम्हारे माथे को चुमूं और तुम्हे बाहों में भरकर कहूं कि रोओ नहीं...मैं हूं ना





Tuesday, April 6, 2021

लघुकथा/...और रिश्ता सड़ गया !

‘तुम सिर्फ शादी चाहती हो ना?’

‘हां’

‘फिर तो खुश हो जाओगी’

‘देखो मुझे लगता था शादी बस साइन ही तो करना है, काम खतम, पर तुमसे जब मैंने कहा था उसी वक्त कर लेते तो मेरा दिल नहीं दुखता, तुम पर यकीन नहीं टूटता’

‘कुछ दिन पहले ही तो कहा है यार तुमने और मैंने मना भी तो नहीं किया, तुम जानती हो कि मैं शादी तुम्ही से करुंगा’

‘कर भी तो नहीं रहे’

‘करूंगा तो खुश हो जाओगी ना’

‘हां बहुत’

‘कुछ पूछ सकता हूं तुमसे’ 

‘हां, पूछो’

‘सच बताना शादी किसी जिद में तो नहीं कर रही हो’

‘नहीं’

‘फिर’

‘तुमसे प्यार करती हूं यार, तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं हमेशा’

‘ओके, मुझे घर जाने से मना तो नहीं करोगी’

‘मेरी सभी जरूरतें पूरी होनी चाहिए बस, मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी’

‘मेरी फैमिली बड़ी है मुझे निभाना भी पड़ेगा’

‘तुम्हारी फैमिली तुम निभाना मैंने कभी मना नहीं किया है और क्या जरूरत पड़ने पर मैंने निभाया नहीं है, तुम्हारे लिए, तुम्हारे प्यार की खातिर जमीन पर बैठकर पचीसों पराठे बनाए थे, मटर पनीर भी तो बनाया था ना तुम्हारे लिए उस गांव में, वैसे भी अपने रिश्ते खुद ही निभाए जाते हैं पुनीत’

‘हां, हां निभाती तो हो और तुम भूल गईं शायद तुम सो गईं थी, मैंने नींद में तुम्हे खिलाया था पर भूखा नहीं सोने दिया था’

‘पता है’

‘घर तो चलोगी न कभी कभी’

‘हमेशा तो नहीं जा पाउंगी’

‘वो तो मैं भी जानता हूं, पर छठे छमाही तो चलोगी ही ना’

‘हां, पर तुम मम्मी-पापा को यहीं ले आओ न’

‘यार वो यहां अभी नहीं रह पाएंगे, हमारी तुम्हारी शादी के बाद देखा जाएगा’

‘रह लेंगे, खाना भले ही ना बना पाऊं उनके लिए शायद, पर सब हो जाएगा’

‘चलो वो तो बाद की बात है एक बात और पूछूं’

‘हां बोलो’

‘मुझे छोड़कर कभी जाओगी तो नहीं?’

उधर से कोई जवाब नहीं आया

‘बोलो पलक तुम हमेशा मुझे छोड़कर जाने की बात करती हो और यही बात मुझे परेशान करती है हमेशा बताओ न मुझे जिंदगी में कभी छोड़कर जाओगी तो नहीं’

‘एक दिन मरकर अलग तो होना ही पड़ता है’

‘ये मुझे पता है, मैं जीतेजी की बात कर रहा हूं,इस जन्म में तुम मेरा साथ छोड़कर तो कभी नहीं जाओगी न’

‘नहीं, पर अगर हमारा रिश्ता सड़ा तो मैं नहीं रहूंगी’

‘जब सड़ेगा तब ना और मुझे खुद पर पूरा यकीन है कि मैं रिश्ते को कभी सड़ने ही नहीं दूंगा’


दो महीने भी तो बीते थे पलक और पुनीत के बीच हुए इस बातचीत को। एक- दूसरे से बेइंतहां प्यार करने वाले पलक और पुनीत ने खूबसूरत भविष्य के सपने के साथ एक दूसरे का हाथ थामा। प्यार करते ही थे, तकरार भी, फिर पता नहीं कैसे कुछ ही दिनों में गलतफहमियों की दीवार इतनी ऊंची हो गई कि विश्वास और प्यार की रोशनी उनके रिश्ते पर पड़नी बंद हो गई। मीलों की दूरियां दिलों की दूरियां कब बन गईं पता ही नहीं चला। उनके रिश्ते को न जाने किसकी नजर लग गई और उनका फला-फूला मुस्कुराता रिश्ता सड़ गया या शायद गलतफहमियों और अनजाने डर ने सड़ा दिया।

-धर्मेंद्र केशरी

Sunday, January 10, 2021

इश्क में Blame Game, Guilt और Regret

 जब कोई जाने की सोच लेता है न

आपमें बेशुमार कमियां खोज लेता है

ऐसा जता देता है कि सारी ग़लती आपकी ही है

मन में अंदर तक भर देता है कि काश आपने वो बात न कही होती या

 वो काम न किया होता 

तो आज हमारा रिश्ता नहीं टूटता

छोड़ कर जाने वाला चला जाता है

पर आपके अंदर गहरा Guilt देकर जाता है

वो इसलिए कि आप ज़िंदगी भर Regret करें

और वो बड़ी आसानी से खुद को सही साबित कर आपके दिल को Guilt के बोझ से दबा देता है

ऐसा वो अपनी खुशी के लिए करता है

ताकि उसके मन में किसी तरह का अपराध बोध या Guilt न रहे

और वो आसानी से मूव ऑन कर सके

ये होता है Blame Game

सारी ग़लती आपकी निकाल कर आपको ज़िंदगी से निकाल देने का Blame Game

ताकि पूरी ज़िंदगी आप Regret करते रहें

रिश्तों में गलतियां कौन नहीं करता

उसने भी तो बहुत की होंगी

एक नहीं हज़ार की होंगी

पर आपने माफ कर दिया होगा 

या भूल गए होंगे

क्योंकि चाहते हैं आप उन्हें

कभी खोना नहीं चाहते

प्यार के साथ एक बहुत बड़ी दिक्कत है

जिससे करो वो आपको नहीं करता

और जो करता है वो खामियां नहीं

सिर्फ खूबियों को देखता है

इस दौर में प्यार बड़ा प्रैक्टिकल हो गया है

और जो प्रैक्टिकल हो जाए वहां प्यार कहां

प्यार तो हमेशा दिल से होता है

दिमाग से बिज़नेस किया जाता है

तो कोशिश हो कि कोई ग़लती न हो

और हम इंसान हैं ग़लतियां करते आए हैं

आगे भी करेंगे

गलती को सुधारने का मौका दिया जाता है

Blame Game खेलकर किसी को ज़िंदगी से आउट नहीं किया जाता

पर दुनिया का रिवाज ही यही है मेरे दोस्त

जाने वाला अपने दिल का हर बोझ आप पर डाल कर जाता है

ताकि कोसते रहो खुद को

पूरी ज़िंदगी

जो गया उसे जाने दो

खेल लेने दो उसे Blame Game

बस तुम अपना मन देखो

अपनी सच्चाई पर Focus करो

और याद रखो छोड़कर वो गए हैं तुमको

तुम तो साथ रहना चाहते थे

कुछ गलतियां हुईं हैं तो उन्हें सुधारो

अपने लिए

उन्हें भी धन्यवाद दो हमारी ज़िंदगी का सबक देने के लिए

जैसे प्यार एकतरफा नहीं होता

वैसे ही गलतियां भी एकतरफा नहीं होतीं

हां, कुछ गलतियों की माफी नहीं होती

पर अगर सारा Blame वो तुम पर डाल कर जा रहे हों

तो मुस्कुराते हुए उन्हें जाने दो

क्योंकि वो अपनी कमियां, अपनी गलतियां आप पर थोंप कर जा रहे हैं

अपना ख्याल रखना 

क्योंकि आपका ख्याल रखने कोई और नहीं आएगा

धर्मेंद्र केशरी Dharmendra Keshari

https://www.youtube.com/watch?v=7bfKnoSsmQM&pbjreload=101

Monday, November 23, 2020

#दिल की डायरी- पाती

पाती

वक्त तो अपनी रफ्तार से भाग रहा है, जैसे हमेशा भागता है...कल जब तुम्हारी उंगलियों को अपनी उंगलियों में पिरो रहा था...तब भी जानता था...वक्त भाग रहा है...वही मेट्रो, वही ऑटो और वही बिसलगढ़ी से पंचशील तक का सफर...जो पिछले एक महीने से कट रहा था...अब बदल गया है... तब वापस लौटते वक्त याद होती थी अब बेचैनी...अजीब सा डर...फिर भी लौटता हूं इस उम्मीद में कि इन उंगलियों को जिन्हें मैंने अपनी उंगलियों में पिरो रखा है...उन्हें जन्म-जन्मांतर के बंधन में बदल दूंगा...ये हौसला पहली बार आया है कि तुम्हें खुद से जुदा नहीं देख सकता...जानता हूं कि सोचती हो मेरे बारे में...ये भी कह देना चाहता हूं...जान लोगी क्या मेरी...एकाध फोन करके सांसें भर दिया करो... तुम्हारी आंखों को देखता हूं...छलक रहा होता है...दुनिया जिसे प्यार कहती है...हम क्या कहें? चलो नहीं देता कोई नाम...पर इतना तो कह ही सकता हूं कि ये जो एहसास है इसने मेरे मन के हर झरोखे, हर खिड़की, हर दरवाजे को खोल दिया है...रोशनी अब छनकर नहीं खुलकर अंदर आती है...अंदर का सीलन ताजा हवा के झोंके से मिट गया है...अभी फोन की घंटी घनघनाई...सोचा तुम हो...दिल का हाल अभी कह डालूंगा...पर तुम न थे...तुम्हारी आंखों को देखता हूं तो खो जाता हूं...डर भी जाता हूं...रहस्यमयी आंखें यूं ही उंगलियों को पिरोए दिल्ली की गलियां, नोएडा की सड़कें, गाजियाबाद के फुटपाथ ही नहीं...पूरी दुनिया के रास्ते तय करना चाहता हूं...जब तुम्हारे गालों को चूमता हूं तो समाज को अश्लीलता दिखती होगी...पर मेरे लिए वो पाकीजा लम्हा है...तुम्हारा अचानक चूमकर मुस्कुरा देना सिरहन पैदा कर देता है...तुम ऐसा ही तो करती आई...कब, क्या उम्मीद नहीं...पर अब उम्मीदें हैं...इतनी बड़ी की बयां नहीं की जा सकतीं...तुम्हारा बचपना, तुम्हारा बड़प्पन सब प्यारा है मुझे... बिना चश्मे के जब तुम देखती हो और मैं उंगलियों को बदल कर दिखाता हूं...तुमको पता भी नहीं चलता कि कितनी सफाई से मैं अपनी खुदगर्जी पूरा करता हूं...हां, तुम्हारे चेहरे पर जो खिलखिलाती हंसी आती है वही तो है उस खुदगर्जी का राज...देखो तुम बात कर लिया करो...सांस भर दिया करो...फोन को तो ऊर्जा मिल जाती है बिजली की या फिर जैसे भी...और मुझे? तुम जानती हो कि बिना तुम्हारे मेरी जिंदगी की बैटरी डाउन ही रहती है...यूं ही सही...पर एक बार मेरे लिए...फिर कहता हूं...जान लोगी क्या मेरी...एकाध फोन करके सांसें भर दिया करो...

Sunday, August 2, 2020

...और छोटी वाली बुआ भगवान को प्यारी हो गईं

दोपहर का वक्त था। मेरी तीसरी नंबर वाली बहन (मेरी अपनी 6 बहनें हैं) के घर गृह प्रवेश था। उसकी शादी प्रयागराज के शंकरगढ़ में हुई है। मेरा घर प्रयागराज में ही कोरांव में है। शंकरगढ़ और कोरांव की दूरी करीब 55 किलोमीटर है। खैर, मैंने पहले ही बहन को कह दिया था कि कोरोना का टाइम चल रहा है किसी को न बुलाए और अगर वो बुलाती भी है तो कोई जाएगा नहीं, पर बहन तो बहन ठहरी। उसने मुझे फोन न करके भाई जी (मेरे बड़े भाई) को फोन किया और आने के लिए कहा। 
भाई जी दोपहर को घर आए और शंकरगढ़ चलने पर चर्चा की। मैं कोरोना से इतना डरा हुआ हूं कि घर से बाहर नहीं निकलता ऐसे में शंकरगढ़ जाना मुझे पहाड़ लग रहा था। वैसे भी मुझे दिल्ली से आए 20 दिन हो चुके हैं, पर कहीं बाहर नहीं निकला था। हां, पैर में चोट लगने की वजह से एक दिन अस्पताल जरूर गया था। बहन के मोह में एकबारगी हम तैयार भी होने की सोचने लगे। भाभी भी चलने को तैयार हो गए, पर मेरे दोनों भतीजे शिवि और क्षितिज ने साफ मना कर दिया। 
अभी हम मंथन ही कर रहे थे कि भाईजी ने अम्मा से कहा कि छोटी बुआ की तबीयत सीरियस है। ताउजी की बेटी गुड़िया ने फोन करके बताया कि बुआ की तबीयत ज्यादा ही सीरीयस है। मेरी छोटी वाली बुआ (सावित्री बुआ) सिरसा, जो कोरांव से 32 किलोमीटर दूर है, वहां रहती है। उनकी दो बेटियां हैं। गुड्डी जिया सुनीता। दोनों मुंबई रहती हैं। भाईजी ने बताया कि कुछ दिन पहले गुड्डी जिया आई थीं पर वो अपने सुसराल कोल्हेपुर (जिगना,मिर्जापुर) चली गई ैहैं। कोल्हेपुर मेरा भी ननिहाल है। गुड़िया ने कहा कि बुआ को कोरांव भर्ती नहीं कर सकते। इतना सुनते ही मैं हिचक गया। कोरांव भर्ती कराने का मतलब जिम्मेदारी उठाना और देखभाल करना। ऐसा नहीं है कि बुआ से लगवा नहीं है, पर कोरोना के भय से त्रस्त चुप रहा। आखिरकार मन नहीं माना और मैंने जीवन रेखा मेडिकेयर के मैनेजिंग डायरेक्टर डॉ. अनिल पांडेय (डॉक्टर भइया कहता हूं उन्हें) फोन किया। मैंने बताया सांस फूल रही है ऑक्सीजन की जरूरत है अस्पताल बुला सकते हैं। कोरांव में कोरोना मरीज बढ़ रहे थे तो प्रशासन सख्त था लिहाजा उन्होंने कहा ऑक्सीजन तो है, पर बिना कोरोना टेस्ट वो भर्ती नहीं कर सकते। मैंने पूरा हाल भाईजी को बताया और अपने कर्तव्यों की औपचारिकता पूरी कर दी।
फिर से भाईजी के फोन की घंटी बजी- क्या बुआ खत्म हो गई। फोन कटा और सब चुप। दिमाग हिल गया कि क्या बुआ की हालत इतनी खराब थी, यानी वो मरणासन्न थीं। अम्मा को बताया। वो रोने लगी। अम्मा से छोटी थी सावित्री बुआ। आती थी तो घर में खुशी से रहती थी। दुखी सब थे, मैं भी पर अम्मा को सबसे ज्यादा पीड़ा थी। उनकी ननद, उनकी सहेली इस दुनिया को छोड़कर चली गई। हमें डर था कि अम्मा खूब रोने न लगे। वो रोई भी और बुआ के अंतिम दर्शन कराने के लिए भी कहती रहीं। आम दिन होता तो निश्चित रूप से अम्मा को लेकर जाते, पर कोरोना की वजह से नहीं ले गए। 
मैं कार लेकर दिल्ली से आया था, उसी से गए। चाची-चाचा और उनका बेटा पवन साथ भाई जी। सिरसा पहुंचने में आधे घंटे लगे। बुआ के दरवाजे पर कोई भीड़ नहीं थी। फूफा जी गमछा लपेटे उकड़ूूू बैठे थे। बगल की दो-एक महिलाएं थीं, कौन ये नहीं पता। दूर से ही बुआ को देखा। ऐसा लगा सो रही हो, पर पास नहीं गया, क्योंकि पास में जाने का मतलब किसी के संपर्क में आना। मैं कार के पास ही रहा। उस वक्त करीब 4 या 5 बज रहे थे और अंतिम संस्कार के लिए तैयारियां भी नहीं हो रही थी। कौन करे, फूफा जो जिंदगी भर फटेहाल रहे उस दिन भी लग रहे थे। बेटा था नहीं, अब तक बड़ी बेटी यानी गुड्डी जिया भी नहीं आई थी। पता चला कोई अर्थी के लिए बांस काटने गया है। मेरे पैर में चोट भी थी और कोरोना से भयग्रस्त भी था, इसलिए मैं मूकदर्शक बना रहा। 
फिर आसपास के लोगों के साथ-साथ अन्य रिश्तेदार भी इकट्ठा होने लगे। फूफा के भाई लोगों के परिवार से चार लोगों ने चंद कदमों तक कंधा दिया, फिर एक टाटा मैजिक पर रख दिया, क्योंकि घाट वहां से 3 किलोमीटर दूर था। घाट बना नहीं है, गंगाजी का किनारा है, जहां आसपास के लोग अंतिम संस्कार के लिए आते हैं। मैं भी कार लेकर चाचा, भाईजी को लेते हुए घाट की ओर चला गया। सभी ने पैर छूकर उन्हें आखिरी बार प्रणाम  किया, पर मैंने नहीं आम दिन होते तो करता, पर इस बार नहीं किया। ये सोचकर भी जिसकी कद्र करो जीते जी, मरने के बाद दिखावे से क्या फायदा। 
घाट को छतवा घाट बोलते हैं जहां आसपास के लोग अंतिम संस्कार के लिए आते हैं। मुझे कभी वहां जाना पसंद नहीं रहा। खैर किसी को नहीं पसंद होगा वहां जाना, पर जीवन का वही एक अंतिम सत्य है। वहां पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो गया। टाउन एरिया की गाड़ी ने लकड़ियां पहुंचा दी थीं, पर बरसात में रास्ता खराब होने की वजह से घाट से करीब 300 मीटर पहले ही गाड़ियां खड़ी हो गईं तो लकड़ियां लोगों ने हाथों से वहां पहुंचाई। मैंने भी चार लकड़ियां उठाकर घाट तक पहुंचाया और अपने कर्मों की खानापूर्ति की। सच तो है दिमाग ने कहा बुआ के लिए कुछ तो कर दे यार, इसलिए पैर में चोट के बावजूद चार लकड़ियां घाट तक ले गया। 
चिता सजी और बुआ को पंचतत्व में विलीन करने की तैयारी पूरी हो गई। उस दौरान मैंने घाट पर एक महिला को देखा, जो कुछ रीति-रिवाजों को पूरा करवा रही थी। उसी महिला को आग जलाकर देनी थी, क्यों क्या कैसे है ये रिवाज मुझे नहीं पता। कुछ दक्षिा भी लेती हैं, खैर वही उनके पेट भरने का जरिया भी है। 
मैंने देखा बुआ के सभी कपड़े भी वहां लाए गए थे। उस महिला को बुआ के कपड़ों की गठरी दी गई, उसने नए कपड़े चुने बाकी वहीं छोड़ दिए। बुआ के जाने के बाद उनकी हर चीज किसी के लिए अछूत और डरावनी हो गई तो किसी के लिए वो तन ढकने का जरिया बन गई और किसी मृत के कपड़े लेने से उस महिला को कोई हिचक नहीं। दुनियावी ये रीति समझ से परे होती है। जरूरतों से बड़ा शायद कुछ होता नहीं हैं।
घंटे भर बीत गए। घोर अंधियारा हो गया। चारों ओर गंगाजी और ढेर सारा पानी। कुछ लोग नाव में दिख रहे थे मुझे, पूफने पर पता चला कि वो मछुआरे हैं और रात भर यहीं रहेंगे, क्योंकि उन्होंने पास में ही जाल बिछा रखा है। जहां चिता जल रही थी उसके आसपास दो-एक मछुआरे थे। मुझे ताज्जूब हुआ कि ऐसी घनघोर रात और उस जगह पर रात बिताना वो भी अकेले, नाव में जहां न जाने कब से चिताएं जलाई जाती हैं। ऐसे हिम्मतवाले लोगों से मिलने का मन हुआ कि इतना कलेजा लाते कहां से हैं, फिर मेरे मन ने ही जवाब दिया। भूख, हां भूख और परिवार पालने की जिम्मेदारी कलेजा मजबूत कर ही देता है। मैंने समय पूछा रात के आठ बज रहे थे, पर उपर से गीली लकड़ियों की वजह से आग सुलगने में देरी हो रही थी। करीब 15 लोग थे वहां। मेरे चाचा उनके बेटे कुछ रिश्तेदार। चारों ओर सियारों के हुआं-हुआं करने की आवाजें आ रही थीं। रात घनघोर थी, पर गंगाजी का पानी चांदी की तरह चमक रहा था। शांत, जैसे कुछ हुआ ही न हो। थोड़ा और वक्त बीता हवा चली और चिता धू-धूकर जलने लगी। थोड़ी देर पहले अधेरे में छिपे घाट में उजाला हो गया, चिता की रोशनी से। मैं कई बार वहां गया हूं, पर हर बार मुझे अच्छा नहीं लगता। मुझे उस चिता में पापाजी दिखने लगे जिन्हें लेकर 22 मार्च 2018 को मैं उसी घाट पर गया था। मेरे मन में अजीब-अजीब से ख्याल चलने लगे। मैं काफी देर तक खड़ा रहा, पर देर होते देख एक उठी सी जगह पर चप्पल रखकर बैठ गया। सामने चिता जल रही थी, गंगाजी का किनारा। गर्मी थी, पर गंगाजी के किनारे थोड़ी ठंडक थी। चिता से लपटें उठ रही थीं। गौर किया तो देखा कि आग का रंग कितना प्यारा है, कितना आकर्षक, पर इस आकर्षण से डर भी लगता है, पर चिताएं भी आग की वजह से आकर्षक हो सकती हैं, मन क्यों ये महसूस कर रहा था, मेरा कोई जोर नहीं था। बुआ धीरे-धीरे अग्नि में समाहित हो रही थी, मैं देख रहा था। ठीक वैसे ही पापाजी भी अग्नि में समाहित हो गए थे औक एक दिन हम भी हो जाएंगे। गंगाजी के किनारे उस दृश्य को देखते हुए मन अजीब सा हो रहा था। समय बीता बुआ राख हो गईं हमने पांच लकड़ियां आखिरी में दीं और उसी समय उनके भतीजे आए जो बार-बार कह रहे थे कि अरे, चाचा ने बताया ही नहीं, नहीं तो डॉक्टरों की फौज खड़ी कर देते। बुरा लग रहा था कि क्या बकैती कर रहे हैं ये, फिर चुप भी हो गया कुछ यही खानापूर्ति तो मैंने भी की थी शायद। उनमें और मुझमें कोई अंतर नहीं था.....हम अब घर की ओर लौट रहे थे और छोटी वाली बुआ भगवान को प्यारी हो चुकी थीं।


Monday, December 16, 2013

दूध के धुले लालू यादव!

माननीय लालू यादव आज रिहा हो गए। रिहा होते ही उन्होंने अपनी वाणी की धार भी दिखानी शुरू कर दी। अब लालू जी हैं कुछ न कुछ तो बोलेंगे ही। बोलिए लालू जी खूब बोलिए, लेकिन जनता ने सोचा बिरसा मुंडा जेल में कुछ वक्त काट के आए होंगे तो आपने बिरसा मुंडा को भी याद किया होगा। वही विरसा मुंडा जिन्होंने आदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ी, लड़ाई तो आपने भी लड़ी। जननायक भी बने, लेकिन सब को साथ लेकर चलने के बजाय आपने शुरू कर दी जाति की राजनीति, संमुदाय विशेष की राजनीति। आपका कद भी बढा, पद भी और पेट भी फिर जीभ कुछ ऐसी लपलपाई कि सत्ता की मलाई से पेट नहीं भरा तो खा गए जानवरों का चारा। हो न हो आपको उन भैंसों की बद्दुआ जरूर लगी होगी लालूजी जिनके हिस्से का चारा आप खा गए और डकार भी नहीं मारी। अब आपका गुस्सा फूट रहा है, सीबीआई के खिलाफ जनलोकपाल के खिलाफ। चलिए सीबीआई की भूमिका आपके आधार पर मान लेते हैं सियासी साजिश का हिस्सा बन गए हैं आप,एक बार ये भी मान लेते हैं कि आपने कोई चारा—वारा नहीं खाया कोई घोटाला नहीं किया। आपसे साफ सुथरा, दूध का धुला इस राजनीति के अखाड़े में कोई है ही नहीं, फिर जनलोकपाल को लेकर थूंथन क्यों फूलने लगे हैं,मुट्ठियां भींच ली है कि अगर अकेले में कोई अन्ना अरविंद मिल जाए तो उसे कतई नहीं छोड़ने वाले आप। आप को डर किस बात का है। ख्वाहमख्वाह डर रहे हैं आप। आप कोई घोटाजेबाज हैं, कोई भ्रष्टाचारी हैं जो जनलोकपाल से डर गए। अरे इस बिल का नाम ही जनलोकपाल है, जाहिर सी बात है कि इसमें जनता की बात है और आप भी जनता के ही हैं जनता के द्वारा, तो फिर पसीने क्यों छूट रहे हैं। लालू जी डर तो उन्हें लगना चाहिए, जिन्होंने जनता का पैसा खाया हो, स्विस बैंकों में एकाउंट खुलवा रखा हो। खैर आप डरिए नहीं आरोप तो लगते रहते हैं और आरोप लगना तो आप जैसे बड़े नेता के लिए आम सी बात है। रही बात आपके सजायाफ्ता होने की तो इसमें भी कोर्ट से ही चूक हुई होगी आप थोड़े न दोषी हैं और मान लीजिए जेल जाना ही पड़े तो आप कह ही रहे हैं कि जेल श्रीकृष्ण जी की जन्मभूमि है और आप जेल जाने से डरते नहीं। फिर दिक्कत किस बात ​की है। लालूजी जनता जनार्दन थोडत्री समझदार हो चुकी है आप भी बुजुर्ग। सच को सच मानने से इंसान का कद बढ़ता ही है। बाकी आपकी मर्जी।

धर्मेंद्र केशरी